Sunday 7 October 2012

प्रकृति की गुहार Plea of 'Nature'

प्रकृति की गुहार


In the poem below the nature is speaking about its helplessness given all that exists and still it finds itself to be धराशायी that is defeated, degraded and depleted. This poem is an attempt to express the feelings of 'nature.'

धरती बहुत,
धरने सभी
और मैं धराशायी!


धन बहुत,
धनवान सभी
और मैं धराशायी!


धुंध बहुत,
धूमिल सभी
और मैं  धराशायी!


धाक बहुत,
धाराएँ सभी
और मैं धराशायी!


धार बहुत,
धड़कने सभी
और मैं धराशायी!


धुन बहुत,
धव्नियाँ सभी
और मैं धराशायी!


धूप  बहुत,
धधकन सभी
और मैं धराशायी!


धैर्य बहुत,
धीरजवान सभी
और मैं धराशायी!


धार बहुत,
धाराएँ सभी
और मैं धराशायी!


ध्रूत बहुत,
धिक्कारें सभी
और मैं धराशायी!


धुर्व बहुत,
ध्रुवतारे सभी
और मैं धराशायी!


धांस बहुत,
धधकन सभी
और मैं धराशायी!

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